भारत में मानवाधिकार के मायने

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अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस पर विशेष टिप्पणी

यूं तो पूरी दुनिया में मानवाधिकार की बातें खूब ज़ोरशोर से उठाई जाती हैं लेकिन भारत में इसके क्या मायने हैं, इसपर बात करना जरूरी है। वीरवार को जारी हुए ह्यूमन राइट्स इंडेक्स में भारत लुढ़क कर 111वें स्थान पर आ गया। 162 देशों के अध्ययन में भारत का स्थान यहाँ तक पहुँच गया है। यह अध्ययन व्यक्तिगत, आर्थिक और धार्मिक स्वतन्त्रता के मद्दे नज़र की जाती है। हालांकि वर्तमान सरकार इस बात से खुश हो सकती है की चीन (129) और बांग्लादेश (139) से थोड़ी बेहतर स्थिति में हैं।

आज मानवाधिकार दिवस पर क्रूरता की हद पार कर देने वाली तसवीर सामने आई है, जहां एक व्यक्ति को पुलिस उस समय पीट रही थी, जब उसके गोंद में उसकी बच्ची थी और वह व्यक्ति चिल्ला रहा था कि मत मारिए, बच्ची को चोट लग जाएगी। हालांकि विडियो के वायरल होने के बाद लाठी बरसाने वाले पुलिस अधिकारी, यानि दारोगा को निलंबित कर दिया गया है। वैसे उत्तर प्रदेश का ट्रैक रेकॉर्ड मानवाधिकार उल्लंघन में निरंतर ऊंचाई लांघ रहा है। https://twitter.com/puneetsinghlive/status/1468971276811210774?s=20
इसके ठीक एक हफ्ते पहले नागालैंड में 14 ग्रामीणों को मार दिया गया वह स्थिति की भयावहता को ही दिखा रहा है कि मामला कितना संगीन है। कभी आदिवासी अधिकारों को कुचलने के लिए तंत्र कभी नक्सल के नाम पर तो कभी, देश द्रोही के नाम पर तंत्र जिस क्रूरता और अमानवीय ढंग से पेश आता है, उससे हमें अपने सभ्य होने पर भी शक होने लगता है। और ये सब एक रूटीन की तरह हो गया है। हमारे एहसास और संवेदनाओं को कैसे भोथरा बना दिया गया है कि हमें कोई फर्क ही नहीं पड़ता।

लेकिन सवाल यही है कि जो लोग अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे, प्रशासन द्वारा उनकी बात सुनने के, बिना किसी पूर्व चेतावनी के सबक सिखाने के लिए उस जनता पर लाठी भाँजने का साहस कहाँ से आता है, जिसके टैक्स पर तमाम अमला जी रहा होता है, उसे शह कहाँ से मिलती है? पुलिस आखिर बल प्रयोग कब कर सकती है, ना इसका संज्ञान अदालतें लेती हैं और ना ही आजतक किसी सिरफिरे और बेलगाम पुलिस या अन्य बलों को कोई सजा हुई। और यह सब बहुत आम तौर तरीका सा बन गया है। मीडिया में भी इसे बल प्रयोग कह कर रफादफा कर दिया जाता है।

लोकतन्त्र की बुनियाद से जब लोक गायब होता चला जाता है तो केवल तंत्र होता है और वह किसी भी मानवाधिकार को खारिज करता चला जाता है। भारत में इंडेक्स का ग्राफ जिस तरह गिर रहा है, वह बहुत सोचनीय है। इधर हमारे संवेदनाओं और बेहतर मानवीय गुणो को सहिष्णुता, सेकुलरिज़्म का जब मज़ाक बनाया जा रहा हो तब मानवाधिकार का क्या हश्र हो रहा है, वह आज के कानपुर परिघटना से पता चल ही गया होगा।

सवाल यही है कि मानवाधिकार काया रश्मअदायागी भर है? क्या यह साल में एक दिन याद भर करने का मामला है? भारत की सामाजिक, आर्थिक विषमता किसी भी बेहतर मानवीय समाज और सामाजिक समावेश को नकारती रही है। ऐसे में एक आधुनिक, समावेशी और गरिमापूर्ण जीवन मूल्यों के भारत बनने का सवाल आम जन के चिंतन के केंद्र में कब आयेगा, फिलहाल तो बहुत दूर की कौड़ी लग रही है। आज अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस के अवसर पर मानवीय गरिमा की उम्मीद और बेहतर भारतीय समाज की आकांक्षा तो रहेगी है।
संपादक

12 COMMENTS

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